सच्चे वैराग्य की महिमा
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सच्चे वैराग्य की महिमा
Image by hartono subagio from Pixabay
दो भाई भर्तृहरि और शुभचन्द्र बहुत दिनों के बाद मिले।
‘भैया! यह तुमने क्या हालत बना रखी है? बहुत दिनों से खोज कर रहा था तुम्हारी। जब तुम्हारी ऐसी दशा का पता चला तो अपने शिष्यों के साथ तुम्हारे लिए आधी तुम्बी रस भेजा था, परंतु तुमने उसे यूं ही लुढ़का दिया। आप इसकी महिमा नहीं जानते। मुझे बारह वर्ष तक पंचाग्नि में तप तपते हुए हो गए, तब जाकर मेरे गुरु ने यह दिया था मुझे। मेरी बारह वर्ष की तपस्या को तुमने यूं ही मिट्टी में मिला दिया। फिर भी मुझसे रहा नहीं गया और यह आधा बचा हुआ रस लेकर आया हूं।’
निर्ग्रन्थ तपोनिधि आचार्य शुभचन्द्र ने छोटे भाई भर्तृहरि की बात सुनी। आचार्य शुभचन्द्र ने पूछा - ‘इस रस से क्या होता है?’
गेरुए वस्त्र पहने, जटा बढ़ाए, मृगचर्म लपेटे साधु भर्तृहरि ने कहा - ‘इस रस से सोना बनाया जाता है, भैया।’
‘सोना!’ - शुभचन्द्र ने दूसरी तुम्बी ली और पर्वत पर पटक दी। सारा रस बह गया।
शुभचन्द्र ने पूछा - ‘भर्तृहरि! कहां बना सोना?’
भर्तृहरि दुःखी मन से बोला - ‘भैया! तांबे का बनता है सोना, पत्थर का नहीं।’
शुभचन्द्र ने अपने पैरों के नीचे की धूल उठाई और पर्वत पर फेंक दी। भर्तृहरि अवाक् रह गया। वह आंखें फाड़-फाड़ कर देखता रहा - ‘अरे! यह तो पूरा पर्वत ही स्वर्ण का हो गया।’
फिर विचारने लगा कि वास्तव में तपस्या तो यह है। वैराग्य तो वास्तव में यही है। इतनी शक्ति, फिर भी किसी प्रकार की इच्छा नहीं और कहां मैं? जिसे छोड़कर वैराग्य लिया, उसी के पीछे पागल हो रहा हूं। हम दोनों भाइयों ने एक साथ ही तो घर छोड़ा, वैभव छोड़ा, मैं तो भटक गया हूं और बड़ा भाई धन्य हो गया।
‘क्या सोच रहे हो, भर्तृहरि? क्या कमी थी स्वर्ण आदि की घर में, जिसे छोड़कर तुमने यह मार्ग अपनाया था और यहां भी उसी की ललक! क्या हो गया है तुझे? संभल! अब भी संभल और कर ले अपना कल्याण।’
‘बस! और शर्मिंदा न करो, भैया! मैं बहुत अंधेरे में था। आपने मेरी आंखें खोल दी। अब तो बचा लो। बना लो मुझे भी अपने जैसा। मुझे भी दे दो यह निर्ग्रन्थ दीक्षा और भक्त हो गया आचार्य शुभचन्द्र का। उनके चरणों में झुक गया।’
‘जब जागो तभी सवेरा। अभी भी देर नहीं हुई है। तुमने बहुत बढ़िया, भला विचार किया है। कल्याण का, सुख का और मुक्ति का मार्ग तो यही है संत दीक्षा।’
वह देखो। भर्तृहरि अपने परिग्रह को उतार कर फेंक रहा है और बन गया है मुनि। लंबे-लंबे केशों को भी हाथ से उखाड़ कर फेंक रहा है और आचार्य शुभचन्द्र उसे पीछी-कमंडल प्रदान कर रहे हैं।
भर्तृहरि को संबोधन करने के लिए आचार्य शुभचन्द्र जी ने रच डाला एक अनुपम ग्रंथ ‘ज्ञानार्णव’ अर्थात् ज्ञान का सागर, जिसमें उस ध्यान-रस की पूरी प्रक्रिया को बताया है, जिससे आत्मा को परमात्मा बनाया जाता है। एक बार अवश्य पढ़ना ‘ज्ञानार्णव’।
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सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
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