पाप का फल
पाप का फल
मनुष्य को ऐसी शंका नहीं करनी चाहिये कि मेरा पाप तो कम था पर दण्ड अधिक भोगना पडा अथवा मैंने पाप तो किया नहीं पर दण्ड मुझे मिल गया! कारण कि यह सर्वज्ञ, सर्वसुहृद्, सर्वसमर्थ भगवान् का विधान है कि पाप से अधिक दण्ड कोई नहीं भोगता और जो दण्ड मिलता है, वह किसी न किसी पाप का ही फल होता है।
किसी गाँव में एक सज्जन रहते थे। उनके घर के सामने एक सुनार का घर था। सुनार के पास सोना आता रहता था और वह जेवर गढ़कर देता रहता था। ऐसे वह खूब पैसे कमाता था। एक दिन उसके पास अधिक सोना जमा हो गया। रात्रि में पहरा लगाने वाले सिपाही को इस बात का पता लग गया। उस पहरेदार ने रात्रि में उस सुनार को मार दिया और जिस बक्से में सोना था, उसे उठाकर चल दिया।
इसी बीच सामने रहने वाले सज्जन लघुशंका के लिये उठकर बाहर आये। उन्होंने पहरेदार को पकड़ लिया कि तू इस बक्से को कैसे ले जा रहा है? तो पहरेदार ने कहा - तू चुप रह। हल्ला मत कर। इसमें से कुछ तू ले ले और कुछ मैं ले लूँ। सज्जन बोले - मैं कैसे ले लूँ? मैं चोर थोड़े ही हूँ!
पहरेदार ने कहा - देख! तू समझ जा, मेरी बात मान ले, नहीं तो दुःख पायेगा।
पर वे सज्जन माने नहीं। तब पहरेदार ने बक्सा नीचे रख दिया और उस सज्जन को पकड़कर जोर से सीटी बजा दी।
सीटी सुनते ही और जगह पहरा लगाने वाले सिपाही दौड़कर वहाँ आ गये। उसने सबसे कहा कि यह इस घर से बक्सा लेकर आया है और मैंने इसको पकड़ लिया है। तब सिपाहियों ने घर में घुसकर देखा कि सुनार मरा पड़ा है। उन्होंने उस सज्जन को पकड़ लिया और राजकीय आदमियों के हवाले कर दिया। जज के सामने बहस हुई तो उस सज्जन ने कहा कि मैंने नहीं मारा है। उसे पहरेदार सिपाही ने मारा है। सब सिपाही आपस में मिले हुए थे।
उन्होंने कहा कि नहीं, इसी ने मारा है। हमने खुद रात्रि में इसे पकड़ा है।...... इत्यादि।
मुकदमा चला। चलते-चलते अन्त में उस सज्जन के लिये फाँसी का हुक्म हुआ। फाँसी का हुक्म होते ही उस सज्जन के मुख से निकला, ’देखो, यह सरासर अन्याय हो रहा है। भगवान् के दरबार में कोई न्याय नहीं! मैंने मारा नहीं। मुझे दण्ड मिल रहा है और जिसने मारा है, वह बेदाग छूट जाएगा, जुर्माना भी नहीं। यह अन्याय है! जज पर उसके वचनों का असर पड़ा कि वास्तव में यह सच्चा बोल रहा है, इसकी किसी तरह से जाँच होनी चाहिये। ऐसा विचार कर के जज ने एक षड़यंत्र रचा।
सुबह होते ही एक आदमी रोता चिल्लाता हुआ आया और बोला - हमारे भाई की हत्या हो गयी, सरकार! इसकी जाँच होनी चाहिये।’
तब जज ने उसी सिपाही को और कैदी सज्जन को मरे हुए सुनार की लाश उठाकर लाने के लिये भेजा। दोनों उस आदमी के साथ वहाँ गये, जहाँ लाश पड़ी थी। खाट पर लाश के ऊपर कपड़ा बिछा था। खून बिखरा पड़ा था। दोनों ने उस खाट को उठाया और उठाकर ले चले। साथ का दूसरा आदमी खबर देने के बहाने दौड़कर आगे चला गया।
तब चलते चलते सिपाही ने कैदी से कहा - देख! उस दिन तू मेरी बात मान लेता तो सोना भी मिल जाता और फाँसी भी नहीं होती। अब देख लिया सच्चाई का फल ?
कैदी ने कहा - मैंने तो अपना काम सच्चाई के लिय ही किया था। फाँसी हो गयी तो हो गयी! हत्या तूने की और दण्ड भोगना पड़ा मेरे को! भगवान् के यहाँ न्याय नहीं!
खाट पर झूठमूठ मरे हुए के समान पड़ा हुआ आदमी उन दोनों की बातें सुन रहा था। जब जज के सामने खाट रखी गयी तो खून भरे कपड़े को हटाकर वह उठ खड़ा हुआ और उसने सारी बात जज को बता दी कि रास्ते में सिपाही यह बोला और कैदी यह बोला।
यह सुनकर जज को बड़ा आश्चर्य हुआ।
सिपाही भी हक्का-बक्का रह गया। सिपाही को पकड़कर कैद कर लिया गया परन्तु जज के मन में सन्तोष नहीं हुआ। उसने कैदी को एकान्त में बुलाकर कहा कि इस मामले में तो मैं तुम्हें निर्दोष मानता हूँ, पर सच-सच बताओ कि इस जन्म में तुमने कोई हत्या की है क्या?
वह बोला - बहुत पहले की घटना है। एक दुष्ट था जो छिपकर मेरे घर मेरी स्त्री के पास आया करता। मैंने अपनी स्त्री को तथा उसको अलग-अलग खूब समझाया पर वह माना नहीं। एक रात वह घर पर था और अचानक मैं आ गया। मेरे को गुस्सा आया हुआ था। मैंने तलवार से उसका गला काट दिया और घर के पीछे जो नदी है, उसमें फेंक दिया। इस घटना का किसी को पता नहीं लगा।
यह सुनकर जज बोला - तुम्हें इस समय फाँसी होगी ही। मैंने भी सोचा कि मैंने किसी से घूस (रिश्वत) नहीं खायी, कभी बेईमानी नहीं की, फिर मेरे हाथ से इसके लिये फाँसी का हुक्म लिखा कैसे गया? अब सन्तोष हुआ। उसी पाप का फल तुम्हें यह भोगना पड़ेगा। सिपाही को अलग फाँसी होगी।
उस सज्जन ने चोरी करते हुए सिपाही को पकड़कर अपने कर्तव्य का पालन किया था। फिर उसको जो दण्ड मिला है, वह उसके कर्तव्य पालन का फल नहीं है। प्रत्युत उसने बहुत पहले जो हत्या की थी, उस हत्या का फल है। कारण कि मनुष्य को अपनी रक्षा करने का अधिकार है, मारने का अधिकार नहीं। मारने का अधिकार रक्षक क्षत्रिय का राजा का है। अतः कर्तव्य का पालन करने के कारण उस पाप (हत्या) का फल उसको यहीं मिल गया और परलोक के भयंकर दण्ड से उसका छुटकारा हो गया।
कारण कि इस लोक में जो दण्ड भोग लिया जाता है, उसका थोड़े में ही छुटकारा हो जाता है, थोड़े में ही शुद्धि हो जाती है, नहीं तो परलोक अर्थात् अगले जन्म में में बहुत भयंकर (ब्याज सहित) दण्ड भोगना पड़ता है।
इस से यह पता लगता है कि मनुष्य के कब के किये हुए पाप का फल कब मिलेगा, इसका कुछ पता नहीं। भगवान् का विधान विचित्र है। जब तक पुराने पुण्य प्रबल रहते हैं, तब तक उग्र पाप का फल भी तत्काल नहीं मिलता। जब पुराने पुण्य खत्म होते हैं, तब उस पाप की बारी आती है। पाप का फल (दण्ड) तो भोगना ही पड़ता है, चाहे इस जन्म में भोगना पड़े या जन्मान्तर में।
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सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
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