स्वामी विवेकानंद और जर्मन दार्शनिक ड्यूसेन
स्वामी विवेकानंद और महान जर्मन दार्शनिक ड्यूसेन की भेंट
यह पहली बार था जब ड्यूसेन को किसी हिन्दू योगी की एकाग्रता, बोध क्षमता और संयम की शक्ति का परिचय हुआ था। बात उस वक़्त की है, जब स्वामी विवेकानंद जर्मनी गए थे। अपने प्रवास के दौरान वे पॉल ड्यूसेन नाम के अत्यंत प्रभावशाली दार्शनिक और विद्वान के घर मेहमान थे।
स्वामी विवेकानंद पॉल ड्यूसेन के अध्ययन कक्ष में बैठे हुए थे और दोनों में कुछ बातचीत हो रही थी। वहीं टेबल पर जर्मन भाषा में लिखी हुई एक किताब पड़ी हुई थी, जो संगीत के बारे में थी। इस किताब के बारे में ड्यूसेन ने विवेकानंद से काफी तारीफ़ें की थीं।
स्वामीजी ने ड्यूसेन से वह किताब केवल एक घंटे के लिए देने के लिए कहा ताकि वे इसे पढ़ सकें। लेकिन विवेकनद की इस बात पर उस दार्शनिक को बहुत आश्चर्य हुआ। उनके आश्चर्य का कारण यह था कि एक तो वह किताब जर्मन भाषा में थी जो स्वामी विवेकानंद जानते नहीं थे। दूसरे वह किताब इतनी मोटी थी कि उसे पढ़ने में कई हफ्तों का समय चाहिए था।
पॉल ड्यूसेन को विवेकानंद की इस बात का बुरा लगा क्योंकि वे खुद इस किताब को कई दिनों से पढ़ रहे थे और अभी आधा भी नहीं पढ़ पाये थे।
उन्होंने विवेकानंद से कहा - “क्या केवल एक घंटे में आप इस किताब को पूरा पढ़ लेंगे? मैं इस को अभी तक सही से समझ नहीं पा रहा हूँ जबकि मुझे इसे पढ़ते हुए कई हफ्ते बीत चुके हैं। यह बहुत ही उच्च स्तर की किताब है और इसे समझना बहुत कठिन है।”
ड्यूसेन की इन बातों पर स्वामीजी ने उनसे कहा कि "मैं विवेकानंद हूँ, पॉल ड्यूसेन नहीं।" इसके बाद पॉल ने वह पुस्तक देना स्वीकार कर लिया।
स्वामी विवेकानंद ने बिना खोले ही किताब को पूरा याद कर लिया।
उस पुस्तक को स्वामी विवेकानंद ने कुछ देर तक अपनी दोनों हथेलियों के बीच दबा कर रखा और फिर पॉल ड्यूसेन के पास लौट आए। विवेकानन्द ने जर्मन दार्शनिक से कहा कि “इस किताब में कुछ खास नहीं है।”
फिर क्या था? उस महाशय के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। उन्हें लगा कि विवेकानंद या तो झूठ बोल रहे हैं या उन्हें अपने ज्ञान का घमंड हो गया है। उन्हें यकीन नहीं हुआ कि एक घंटे में ही विवेकानंद उस पुस्तक के बारे में अपनी राय कैसे दे सकते हैं और वो भी तब, जब उन्हें जर्मन भाषा आती भी नहीं है।
अब जर्मन दार्शनिक ने विवेकानंद की परीक्षा लेने के लिए एक-एक कर के स्वामी विवेकानंद से उस किताब के अलग-अलग पन्नों में से पूछना शुरू किया। किन्तु पॉल ड्यूसेन के जीवन का सबसे बड़ा आश्चर्य हुआ, जब विवेकानंद ने न केवल उन सभी पन्नों की जानकारियों के बारे में सही-सही बता दिया बल्कि उससे संबन्धित अलग-अलग विचारों को भी उनके सामने रख दिया। विवेकानंद की मानसिक शक्ति ने उस जर्मन दार्शनिक को अंदर से झकझोर दिया।
वे पूछ उठे, “यह कैसे संभव है?”
इस पर विवेकानंद ने उत्तर दिया- इसीलिए लोग मुझे स्वामी विवेकानंद कहते हैं।
उन्होने उस पॉल ड्यूसेन को ब्रह्मचर्य, त्याग और संयम के पालन से मिलने वाली शक्ति के बारे में बताया और कहा कि यदि मनुष्य एक संयमित जीवन जिये, तो उसके मन की मेधा, स्मरणशक्ति और अन्य शक्तियाँ जागृत हो सकती हैं। बाद में पॉल ड्यूसेन ने सनातन संस्कृति अपना कर अपना नाम देवसेन रख लिया था।
शिक्षा-
आजकल दिन-प्रतिदिन नई पीढ़ी और युवावर्ग जाने-अनजाने में विदेशी रहन सहन और पाश्चात्य विचारों को अंधाधुंध अपनाती जा रही है। इतना ही नहीं उन्हें ऐसा करने में प्रतिष्ठा नजर आती है। भले ही वह रहन-सहन हमारे शरीर और मानसिक स्वास्थ्य के लिए हानिकारक ही क्यों न हो?
हमारी युवा पीढ़ी इस बात को भूल-सी गयी है कि भारत की संस्कृति, परंपरा और अध्यात्म में जीवन के ऐसे बहुमूल्य अनुभव छिपे हैं, जो किसी अन्य देश अथवा संस्कृति के पास नहीं हैं। मन की एकाग्रता, संयम, और त्याग से प्राप्त होने वाली उपलब्धियों के विषय में उनकी कोई इच्छा नहीं है।
बार-बार हमारे देश के महान दार्शनिकों और योगियों के ज्ञान और श्रेष्ठता से पश्चिमी देशों के लोग अत्यंत प्रभावित हुए हैं।
स्वामी विवेकानंद का जीवन हमें निर्भीक, साहसी, संयमी और परिश्रमी बनने की शिक्षा देता है। एक ओर वेदान्त, ब्रह्मसूत्र और गीता जैसे ग्रंथ ज्ञान-विज्ञान के उच्चतम अनुभवों की शिक्षा देते हैं, तो दूसरी ओर हमारे अन्य ग्रंथ दैनिक जीवन को मर्यादित और अनुशासित जीने की सलाह देते हैं।
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सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
🙏🙏🙏
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Such an output can only be expected from persons like Swamiji. Unusually Good.
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