दान-पुण्य
दान-पुण्य
एक धनाढ्य सेठ था, पर था बहुत कंजूस स्वभाव का। दान-पुण्य के लिए तो उसका हाथ कभी खुलता ही न था। उसके घर जो पुत्रवधू आयी, वह बहुत कुलीन और सत्संगी घराने की थी। घर के संस्कारी माहौल और सत्संग में जाने के कारण बचपन से ही दानशीलता उसके स्वभाव में थी।
उसमें बड़े बुजर्गों की सेवा, साधु-संतों का स्वागत सत्कार, सत्संग सुनना, दान दक्षिणा देना आदि उच्च संस्कार आत्मसात् हो गये थे। वह व्यर्थ खर्च के तो खिलाफ थी, परंतु अच्छे कार्यों में, लोक-मांगल्य के कार्यों में पैसे खर्चने में हिचक नहीं रखनी चाहिए, ऐसी उसकी ऊँची मति थी। ससुर जी की कंजूसी भरी रीति-नीति उसे पसंद न आयी। वह प्रयत्न शील रहती कि ससुर जी का लोभी लालची मन उदार व परोपकारी बने।
एक दिन सेठजी घर पर ही थे। बहू पड़ोसन से बातें कर रही थी। पड़ोसन ने पूछाः “क्यों बहना! आज खाने में क्या-क्या बनाया था? तब बहू ने कहाः “बहन! आज कहाँ रसोई बनायी, हमने तो खाया बासी और बन गये उपवासी।“
बहू के ये शब्द ससुर जी के कानों में पड़े, तो वे चौंके और अपनी पत्नी पर बिगड़ पड़े कि ठीक है, मैं कंजूस हूँ, परंतु इसका मतलब यह नहीं है कि मेरी समाज में कोई इज्जत ही नहीं है।
तुमने बहू को बासी अन्न खिला दिया। अब वह तो सारे मुहल्ले में मेरी कंजूसी का ढिंढोरा पीट रही है। सेठानी ने कहाः “मैंने कभी बहू को बासी खाना दिया ही नहीं है। मैं इतनी मूर्ख नहीं हूँ कि इतना भी न जानूँ।“
सेठ ने बहू को बुलाकर पूछाः “बेटी! तुमने तो आज ताजा भोजन किया है। फिर पड़ोसन से झूठ क्यों कहा कि खाया बासी और बन गये उपवासी?”
”ससुर जी! मैंने झूठ नहीं कहा बल्कि सौ प्रतिशत सत्य कहा है।“ बुद्धिमान बहू ने नम्रतापूर्ण स्वर में सत्य समझाते हुए कहाः ”जरा सोचिये, ससुर जी! आज हमारे पास धन-दौलत है, जिससे हम खूब सुख-सुविधाओं में आनंद से रह रहे हैं। यह वास्तव में हमारे पूर्वजन्म के पुण्य कर्मों का ही फल है। इसलिए आज हम जो सुख भोग रहे हैं, वह सब बासी आहार के समान है अर्थात् हम बासी खा रहे हैं.. और जो धन हमें मिला है, उससे दान, पुण्य, धर्म या परोपकार के कार्य तो कर नहीं रहे हैं। अतः अगले जन्म के लिए तो हमने कुछ पुण्य पूँजी सँजोयी नहीं है। इसलिए अगले जन्म में हमें उपवास करना पड़ेगा। अब आप ही बताइये, क्या मेरा वचन सत्य नहीं है?“
बहू की युक्ति पूर्ण सुंदर सीख सुनकर सेठ की बुद्धि पर से लोभ का पर्दा हट गया, सद्ज्ञान का प्रकाश हुआ और वे गदगद स्वर से बोलेः “मैं धन्य हुआ जो तुझ जैसी सत्संगी की सुपुत्री मेरे घर की लक्ष्मी बनी। बेटी! तूने आज मुझे जीवन जीने की सही राह दिखायी है।“
फिर तो सेठ जी ने दान-पुण्य की ऐसी सरिता प्रवाहित की कि दान का औदार्य सुख, आत्म संतोष, उज्जवल भविष्य और परोपकारिता का मंगलमय सुस्वभाव उन्हें प्राप्त हो गया, जिसके आगे धन-संग्रह एवं सुख-सुविधा का बाह्य सुख उन्हें तुच्छ लगने लगा।
वास्तव में ”परोपकार से प्राप्त होने वाली आंतरिक प्रसन्नता और प्रभुप्राप्ति ही सार है“ - यह उनकी समझ में आ गया।
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सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
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