दान देने से पहले
दान देने से पहले
दान देने से पहले जरा सोच लें।
दान करना हमारे समाज में अति शुभ माना गया है, लेकिन कई बार यह दान दुःख का कारण भी बन जाता है। हमारे आसपास ऐसे कई व्यक्ति है जो ज्यादा दान, ज्यादा धर्म में लीन रहते है। फिर भी कष्ट उनका व उनके परिवार का पीछा नहीं छोड़ता। तब हम अपने को सांत्वना स्वरूप यह कह कर संतोष करते है कि भगवान शायद हमारी परीक्षा ले रहा है।
अरे भाई! भगवान कोई तुम्हारी परीक्षा वगैरह नहीं ले रहा, बल्कि वह तो तुम्हारे ही कर्मो का फल तुम्हें दे रहा है। बहुत दान धर्म करने के बाद भी सुख नहीं मिलता क्योंकि तुम्हारे द्वारा दिया दान ही दुःख का कारण बन जाता है।
एक समय की बात है। एक बार एक गरीब आदमी एक सेठ के पास जाता है और भोजन के लिए सहायता मांगता है। सेठ बहुत धर्मात्मा होता है। वह उसे पैसे देता है। पैसे लेकर व्यक्ति भोजन करता है और उसके पास कुछ पैसे बचते हैं, जिससे वह शराब पी लेता है। शराब पीकर घर जाता है और अपनी पत्नी को मारता है। पत्नी दुःखी होकर अपने दो बच्चों के साथ तालाब में कूद कर आत्म हत्या कर लेती है।
कुछ समय बाद उस सेठ की भी असाध्य रोग से मृत्यु हो जाती है। मरने के बाद सेठ जब ऊपर जाता है, तब यमराज बोलते है कि इसको नरक में फेंक दो। सेठ यह सुनकर यमराज से कहता है कि आपसे गलती हुई है। मैंने तो कभी कोई पाप भी नहीं किया है, बल्कि जब भी कोई मेरे पास आया है, मैंने तो उसकी हमेशा मदद ही की है। इसलिये मुझे एक बार भगवान से मिला दो। तब यमराज उसे बोलते है कि हमारे यहाँ तो गलती की कोई संभावना नहीं है, गलतियाँ तो तुम लोग ही करते हो। पर सेठ के बहुत कहने पर यमराज उसे भगवान के समक्ष पेश करते हैं।
भगवान के सामने जाकर सेठ बोलता है - प्रभु! मैंने तो कोई पाप किया ही नहीं है, तो मुझे नरक क्यों दिया जा रहा है?
तब भगवान उसे उस गरीब व्यक्ति को पैसे देने वाली बात बताते है कि उस व्यक्ति की पत्नी और दो बच्चों की जीव हत्या का कारण तू है। तू उसे पैसे न देता, तो वह शराब पीकर अपनी पत्नी को दुःख नहीं देता।
सेठ बोलता है - प्रभु! मैंने तो एक गरीब को दान दिया है और शास्त्रों में भी दान देने की बात लिखी है।
तब भगवान ने कहा कि दान देने से पहले पात्र की योग्यता तो परखनी चाहिए कि वह दान लेने के योग्य है या नहीं, या उसे किस प्रकार के दान की जरूरत भी है। तुमने धन देकर उसकी मदद क्यों की? तुम उसको भोजन भी करा सकते थे।
और रही बात उसकी दरिद्रता की, तो उसे देना होता तो मैं ही दे देता, वह जिस योग्य था, उतना मैंने उसे दिया। जब मैंने ही उसकी अयोग्यता के कारण उसे सब कुछ नही दिया, तो तुम्हें क्या जरूरत थी उसे धन देने की? तुम उसे भोजन भी करवा सकते थे और तुम्हारे दिये हुए धन-दान के कारण तीन जीव हत्याएँ हुई हैं और इन हत्याआें के पाप का फल अब तुम्हें भुगतना पड़ेगा।
सो कहने का तात्पर्य ये है कि -
दान देना बुरी बात नहीं, लेकिन देने से पहले ये परख लें कि आप जो दान कर रहे हैं, उसका उपयोग किसी पाप कर्म में तो नहीं हो रहा है। आप देखें कि आपका दान किसी का भला कर के सार्थक हो भी रहा है या नहीं। भले ही दान हेतु आपके भाव श्रेष्ठ हों, लेकिन अगर आपके द्वारा दिये दान से कोई पाप कर्म फलित होता है, तो आपको उस दिए दान के पुण्य के साथ-साथ उसके पाप के फल को भी भोगना होगा। अगर आपके दान से कोई बुरा कर्म फलित करता है, तो उसके साथ कर्म का भागीदार आपको भी बनना पड़ेगा, क्योकि इस कर्म को फलित करने के लिए पानी सींचने का काम तो आप ही ने किया है न!
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सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
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