कोई काम छोटा नहीं

  कोई काम छोटा नहीं

एक बार भगवान अपने एक निर्धन भक्त से प्रसन्न होकर उसकी सहायता करने उसके घर साधु के वेश में पधारे। उनका यह भक्त जाति से चर्मकार था और निर्धन होने के बाद भी बहुत दयालु और दानी प्रवृत्ति का था। वह जब भी किसी साधु संत को नंगे पाँव देखता, तो अपने द्वारा गाँठी गई जूतियाँ या चप्पलें बिना दाम लिए उन्हें पहना देता। 

जब कभी भी वह किसी असहाय या भिखारी को देखता तो घर में जो कुछ मिलता, उसे दान कर देता। उसके इस आचरण की वजह से घर में अकसर फाका पड़ता था। उसकी इन्हीं आदतों से परेशान होकर उसके माँ-बाप ने उसकी शादी करके उसे अलग कर दिया, ताकि वह गृहस्थी की ज़िम्मेदारियों को समझे और अपनी आदतें सुधारे। लेकिन इसका उस पर कोई असर नहीं हुआ और वह पहले की ही तरह लोगों की सेवा करता रहा।

 भक्त की पत्नी भी उसे पूरा सहयोग देती थी। ऐसे भक्त से प्रसन्न होकर ही भगवान उसके घर आए थे, ताकि वे उसे कुछ देकर उसकी निर्धनता दूर कर दें तथा भक्त और अधिक ज़रूरत मंदों की सेवा कर सके। भक्त ने द्वार पर साधु को आया देख अपने सामर्थ्य के अनुसार उनका स्वागत सत्कार किया। वापस जाते समय साधु भक्त को पारस पत्थर देते हुए बोले - इसकी सहायता से तुम्हें अथाह धन संपत्ति मिल जायेगी और तुम्हारे सारे कष्ट दूर हो जाएँगे। तुम इसे सँभालकर रखना। 

इस पर भक्त बोला - फिर तो आप यह पत्थर मुझे न दें। यह मेरे किसी काम का नहीं। वैसे भी मुझे कोई कष्ट नहीं है। जूतियाँ गाँठ कर मिलने वाले धन से मेरा काम चल जाता है। मेरे पास ‘राम नाम’ की संपत्ति भी है, जिसके खोने का भी डर नहीं। 

यह सुनकर साधु वेशधारी भगवान लौट गए।

इसके बाद भक्त की सहायता करने की कई कोशिशों में असफल रहने पर भगवान एक दिन उसके सपने में आए और बोले - प्रिय भक्त! हमें पता है कि तुम लोभी नहीं हो। तुम कर्म में विश्वास करते हो। जब तुम अपना कर्म कर रहे हो तो हमें भी अपना कर्म करने दो। इसलिए जो कुछ हम दें, उसे सहर्ष स्वीकार करो। 

भक्त ने ईश्वर की बात मान ली और उनके द्वारा की गई सहायता और उनकी आज्ञा से एक मंदिर बनवाया और वहाँ भगवान की मूर्ति स्थापित कर उसकी पूजा करने लगा।

एक चर्मकार द्वारा भगवान की पूजा किया जाना पंडितों को सहन नहीं हुआ। उन्होने राजा से इसकी शिकायत कर दी। राजा ने भक्त को बुलाकर जब उससे पूछा तो वह बोला मुझे तो स्वयं भगवान ने ऐसा करने को कहा था। वैसे भी भगवान को भक्ति प्यारी होती है, जाति नहीं। उनकी नज़र में कोई छोटा-बड़ा नहीं, सब बराबर हैं।

राजा बोला - क्या तुम यह साबित करके दिखा सकते हो? 

भक्त बोला - क्यों नहीं? मेरे मंदिर में विराजित भगवान की मूर्ति उठकर जिस किसी के भी समीप आ जाए, वही सच्चे अर्थों में उनकी पूजा का अधिकारी है। 

राजा तैयार हो गया। पहले पंडितों ने प्रयास किए, लेकिन मूर्ति उनमें से किसी के पास नहीं आई। जब भक्त की बारी आई तो उसने एक पद पढ़ा- 

"देवाधिदेव आयो तुम शरना,

 कृपा कीजिए जान अपना जना।" 

इस पद के पूरा होते ही मूर्ति भक्त की गोद में आ गई। यह देख सभी को आश्चर्य हुआ। राजा और रानी ने उसे तुरंत अपना गुरु बना लिया। इस भक्त का नाम था रविदास। जी हाँ, वही जिन्हें हम संत रविदास जी या संत रैदास जी के नाम से भी जानते हैं। जिनकी महिमा सुनकर संत पीपा जी, श्री गुरु नानक देव जी, श्री कबीर साहिब जी और मीरांबाई जी भी उनसे मिलने गए थे। यहाँ तक कि दिल्ली का शासक सिकंदर लोदी भी उनसे मिलने आया था। 

उनके द्वारा रचित पदों में से 39 को “श्री गुरुग्रन्थ साहिब’ में भी शामिल किया गया है, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इन सबके बाद भी संत रविदास जीवन भर चमड़े की जूतियां गाँठने का काम करते रहे, क्योंकि वे किसी भी काम को छोटा नहीं मानते थे। जिस काम से किसी के परिवार का भरण पोषण होता हो, वह छोटा कैसे हो सकता है।

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सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

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