सेवा का फल मेवा
सेवा का फल मेवा
किसी की चोर लूटे, किसी की आग जलाए।
लेकिन धन उसकी सफल हो, जो ईश्वरीय अर्थ लगाए।
एक बार एक महात्मा जी निर्जन वन में भगवद्चिंतन के लिए जा रहे थे, तो उन्हें एक व्यक्ति ने रोक लिया। वह व्यक्ति अत्यंत गरीब था। बड़ी मुश्किल से दो वक्त की रोटी जुटा पाता था।
उस व्यक्ति ने महात्मा से कहा - महात्मा जी! आप परमात्मा को जानते हैं, उनसे बातें करते हैं। अब यदि परमात्मा से मिले तो उनसे कहियेगा कि मुझे सारी उम्र में जितनी दौलत मिलनी है, कृपया वह एक साथ ही मिल जाये ताकि कुछ दिन तो में चैन से जी सकूँ।
महात्मा ने उसे समझाया - मैं तुम्हारी दुःख भरी कहानी परमात्मा को सुनाऊंगा लेकिन तुम जरा खुद भी सोचो, यदि भाग्य की सारी दौलत एक साथ मिल जायेगी तो आगे की ज़िन्दगी कैसे गुजारोगे?
किन्तु वह व्यक्ति अपनी बात पर अडिग रहा। महात्मा उस व्यक्ति को आशा दिलाते हुए आगे बढ़ गए।
इन्हीं दिनों में उसे ईश्वरीय ज्ञान मिल चुका था। महात्मा जी ने उस व्यक्ति के लिए अर्जी डाली। परमात्मा की कृपा से कुछ दिनों बाद उस व्यक्ति को काफी धन-दौलत मिल गई।
जब धन-दौलत मिल गई तो उसने सोचा - मैंने अब तक गरीबी के दिन काटे है, ईश्वरीय सेवा कुछ भी नहीं कर पाया। अब मुझे भाग्य की सारी दौलत एक साथ मिली है। क्यों न इसे ईश्वरीय सेवा में लगाऊँ क्योंकि इसके बाद मुझे दौलत मिलने वाली नहीं। ऐसा सोचकर उसने लगभग सारी दौलत ईश्वरीय सेवा में लगा दी।
समय गुजरता गया। लगभग दो वर्ष पश्चात् महात्मा जी उधर से गुजरे तो उन्हें उस व्यक्ति की याद आयी। महात्मा जी सोचने लगे - वह व्यक्ति जरूर आर्थिक तंगी में होगा क्योंकि उसने सारी दौलत एक साथ पायी थी। और कुछ भी उसे प्राप्त होगा नहीं। यह सोचते-सोचते महात्मा जी उसके घर के सामने पहुँचे।
लेकिन यह क्या! झोपड़ी की जगह महल खड़ा था। जैसे ही उस व्यक्ति की नज़र महात्मा जी पर पड़ी, महात्मा जी उसका वैभव देखकर आश्चर्य चकित हो गए। भाग्य की सारी दौलत कैसे बढ़ गई?
वह व्यक्ति नम्रता से बोला - महात्माजी! मुझे जो दौलत मिली थी, वह मैंने चन्द दिनों में ही ईश्वरीय सेवा में लगा दी थी। उसके बाद दौलत कहाँ से आई, मैं नहीं जनता। इसका जवाब तो परमात्मा ही दे सकता है।
महात्मा जी वहाँ से चले गये और एक विशेष स्थान पर पहुँच कर ध्यान मग्न हुए। उन्होंने परमात्मा से पूछा - यह सब कैसे हुआ?
महात्मा जी को आवाज़ सुनाई दी -
किसी की चोर ले जाये, किसी की आग जलाये।
धन उसी का सफल हो, जो ईश्वर अर्थ लगाये।
सीख - जो व्यक्ति जितना कमाता है, उस का कुछ हिस्सा अगर ईश्वरीय सेवा कार्य में लगाता है, तो उस का फल अवश्य मिलता है। इसलिए कहा गया है - सेवा का फल तो मेवा है।
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सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
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