जीवन का हिसाब
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जीवन का हिसाब
Image by Erika Varga from Pixabay
एक घटना मुझे याद आती है। एक गांव के पास एक बहुत सुंदर पहाड़ था। उस सुंदर पहाड़ पर एक मंदिर था। वह दस मील की ही दूरी पर था और गांव से ही मंदिर दिखाई पड़ता था। दूर-दूर के लोग उस मंदिर के दर्शन करने आते और उस पहाड़ को देखने जाते।
उस गांव में एक युवक था। वह भी सोचता था कि कभी मुझे जाकर मंदिर देखकर आना है। लेकिन वह यही सोचता रहा कि मंदिर करीब ही है, अतः कभी भी देख आएगा। एक दिन उसने तय ही कर लिया कि मैं कब तक रुका रहूँगा; आज रात मुझे उठ कर पहाड़ पर चले ही जाना है। सुबह से धूप बढ़ जाती थी। इसलिए वह दो बजे रात को उठा। उसने लालटेन जलाई और गांव के बाहर आया।
घनी अंधेरी रात थी। वह बहुत डर गया। उसने सोचा कि छोटी सी लालटेन है। दो-तीन कदम तक इसका प्रकाश पड़ता है और दस मील का फासला है। इतना दस मील का अंधेरा इतनी छोटी सी लालटेन से कैसे कटेगा? इतना घना और विराट अंधेरा है और इतनी छोटी-सी लालटेन है। इससे क्या होगा? इससे दस मील पार नहीं किए जा सकते। सूरज की राह देखनी चाहिए। तभी ठीक होगा। वह वहीं गांव के बाहर बैठ गया।
ठीक भी था। उसका गणित बिलकुल सही था और आमतौर से ऐसा ही गणित अधिकतम लोगों का होता है। तीन फीट तक तो प्रकाश पहुंचता है और दस मील लंबा रास्ता है। भाग दे दें दस मील में तीन फीट को, तो कहीं इस लालटेन से काम चलने वाला है? लाखों लालटेन चाहिए, तब कहीं कुछ हो सकता है।
वह वहां डरा हुआ बैठा था और सुबह की प्रतीक्षा कर रहा था। तभी एक बूढ़ा आदमी एक छोटे से दीये को हाथ में लिए चला जा रहा था। उसने उस बूढ़े से पूछा। पागल हो गए हो क्या? कुछ गणित का पता है? दस मील लंबा रास्ता है। तुम्हारे दीये से तो एक कदम भी रोशनी नहीं पड़ती!
उस बूढ़े ने कहा - क्या कहा? पागल! एक कदम से ज्यादा कभी कोई चल पाया है? एक कदम से ज्यादा मैं चल भी नहीं सकता। रोशनी चाहे हज़ार मील पड़ती रहे और जब तक मैं एक कदम चलता हूं, तब तक रोशनी एक कदम आगे बढ़ जाती है। दस मील क्या? मैं छोटे से दीये से दस हज़ार मील पार कर लूंगा। उठ आ। तू क्यों बैठा है? तेरे पास तो अच्छी लालटेन है। एक कदम तू आगे चलेगा। रोशनी उतनी ही आगे बढ़ जाएगी।
जिंदगी में अगर कोई पूरा हिसाब पहले लगा ले तो वहीं बैठ जाएगा। वहीं डर जाएगा और उसका जीवन वहीं खत्म हो जाएगा। जिंदगी में एक-एक कदम का हिसाब लगाने वाले लोग हज़ारों मील चल जाते हैं और हजारों मील का हिसाब लगाने वाले लोग एक कदम भी नहीं उठा पाते। डर के मारे वहीं बैठे रह जाते हैं और अंत में जीवन से हार जाते हैं।
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सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
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