सत्कार
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सत्कार
एक थका-मांदा शिल्पकार लंबी यात्रा के बाद एक छायादार वृक्ष के नीचे विश्राम के लिए बैठ गया। अचानक उसे सामने एक पत्थर का टुकड़ा पड़ा दिखाई दिया।
उस शिल्पकार ने उस पत्थर के टुकड़े को उठा लिया, सामने रखा और औजारों के थैले से छेनी-हथौड़ी निकालकर उसे तराशने के लिए जैसे ही पहली चोट की, पत्थर जोर से चिल्ला पड़ा -
उफ! मुझे मत मारो।
दूसरी बार वो पत्थर रोने लगा - मत मारो मुझे, मत मारो, मत मारो।
शिल्पकार ने उस पत्थर को छोड़ दिया और अपनी पसंद का एक अन्य टुकड़ा उठाया और उसे हथौड़ी से तराशने लगा।
वो टुकड़ा चुपचाप छेनी-हथौड़ी के वार सहता गया और देखते ही देखते उस पत्थर के टुकड़े में से एक देवी की प्रतिमा उभर आई। उस प्रतिमा को वहीं पेड़ के नीचे रख वो शिल्पकार अपनी राह पकड़ आगे चला गया।
कुछ वर्षों बाद उस शिल्पकार को फिर से उसी पुराने रास्ते से गुजरना पड़ा, जहां पिछली बार विश्राम किया था।
वो उस स्थान पर पहुंचा तो देखा कि वहां उसी मूर्ति की पूजा-अर्चना हो रही है, जो उसने बनाई थी। भीड़ है, भजन और आरती हो रही है, भक्तों की पंक्तियां लगी हैं और जब उसके दर्शन का समय आया, तो पास आकर देखा कि उसकी बनाई हुई मूर्ति का कितना सत्कार हो रहा है।
जो पत्थर का पहला टुकड़ा उसने उसके रोने-चिल्लाने पर फेंक दिया था वो भी एक ओर में पड़ा है और लोग उसके सिर पर नारियल फोड़कर मूर्ति पर चढ़ा रहे हैं।
शिल्पकार ने मन ही मन सोचा - जीवन में कुछ बन पाने के लिए यदि शुरु में अपने जीवन के शिल्पकार (माता-पिता, शिक्षक, गुरु आदि) को पहचान कर उनका सत्कार करता है, कुछ कष्ट झेल लेने से व्यक्ति का जीवन सफल बन जाता है, फिर बाद में सारा विश्व उसका सत्कार करता है।
जीवन में आने वाले दुःख और कष्ट ही वे छेनी और हथौड़ी हैं, जो हमारे चरित्र को तराश कर समाज में पूजनीय प्रतिमा के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं। ‘मुझे मत मारो, मुझे मत मारो’ कहने वालों के सिर पर तो नारियल ही फोड़े जाते हैं, जिसमें मन की पीड़ा से अधिक अपमान की पीड़ा समाहित है।
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सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
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