मेरे पति मेरे देवता (भाग - 49)

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मेरे पति मेरे देवता (भाग - 49)

श्री लाल बहादुर शास्त्री के जीवन की कुछ महत्त्वपूर्ण घटनाएं

श्रीमती ललिता शास्त्री की ज़ुबानी

प्रस्तुतकर्ता - श्री उमाशंकर (जून, 1967)

गोली हमें लगनी चाहिए

उधर शास्त्री जी घंटाघर चलने की तैयारी कर रहे थे और हम दूसरे कमरे में रो रही थी। हमारी आँखों से आंसू बहते देखकर सुमन शास्त्री जी से जा कर बोली - ‘बाबूजी! आपने अम्मा को डांटा है क्या?

‘क्यों?

‘वे उस कमरे में रो रही हैं।’

शास्त्री जी कमरे में आए। उन्हें अचम्भा हो रहा था, हमारी रुलाई पर। उन के अनुमान से हम उनके जेल जाने के कारण रो रही थी। उन्होंने हमारी इस तरह की कमज़ोरी और नादानी पर आश्चर्य प्रकट किया और रोने का कारण जानना चाहा। उन के जेल जाने का यह कोई पहला अवसर तो था नहीं। हम बात टालने के विचार से ‘वैसे ही’ कह कर चुप हो गई।

जब उन्होंने दोबारा पूछा, तब हमें बताना पड़ा - ‘हमारे पास कुल छः पैसे हैं। आप से कह कर आपको परेशानी में नहीं डालना चाहती थी, पर यह भी चिन्ता थी कि कल आपने मिर्ज़ापुर जाने के लिए कहा है, तो हम जाएंगी कैसे? यही सोच-सोच कर रो रही थी।’

शास्त्री जी को भी इसका ध्यान नहीं रहा था। वे भी तनिक सोच में पड़ गए। फिर कुछ प्रबन्ध करने को कह कर हमें मुँह-हाथ धोने के लिए कहा। वे दूसरे कमरे में चले गए।

दोपहर बाद जब घंटाघर चलने का समय आया, तब हम भी चलने को तैयार हो गई। वे बोले - ‘तुम कहाँ चलोगी? अगर गोली चल गई तो!’

‘फिर तो हमारा साथ रहना और भी ज़रूरी है। गोली पहले हमें लगनी चाहिए। हम मान नहीं सकती। बिल्कुल चलेंगी।’

शास्त्री जी ने समझाने की कोशिश की, पर हम उनकी एक भी सुनने को तैयार न थी। हमारी तैयारी सुन कर अम्मा जी भी तैयार हो गई। गौतम जी की पत्नी ने सुना, तो वे भी कपड़े बदलने लगी। अन्त में शास्त्री जी, अम्मा जी, गौतम जी की पत्नी और हम एक ही तांगे में बैठ कर घंटाघर की ओर चल पड़ी। रास्ते में एक जगह तांगा रोक कर शास्त्री जी ने एक सज्जन से कुछ कहा और फिर आकर बैठ गए।

इधर मुहम्मद अली पार्क की बजाय घंटाघर पर जब बहुत भीड़ हो गई, तब पुलिस वालों को सन्देह हुआ। झटपट थोड़े सिपाही इधर भी लगाए गए, पर वे पर्याप्त नहीं थे। हम लोगों का तांगा जहाँ पहुँचना चाहिए था, वहाँ पहुँच गया। शास्त्री जी तांगे पर खड़े हो गए। उनके खड़े होते ही ‘इन्कलाब जिन्दाबाद’ के नारे लगने लगे। उस के उपरांत शास्त्री जी ने ‘भाइयों और बहनों’ का उच्चारण ही किया था कि पुलिस के एक अफ़सर ने तांगे के समीप आकर इन की गिरफ्तारी का वारंट दिखलाया।

शास्त्री जी ने ‘धन्यवाद’ कहा और जो पर्चे झोले में भर कर लाए थे, उन्हें निकाल कर चारों ओर जनता के बीच फेंक दिए। इसके बाद वे तांगे से उतरे और उस अफ़सर के संग चल दिए। अम्मा जी गुस्से में पुलिस वालों और अंग्रेज़ी सरकार के ख़िलाफ़ बड़ी देर तक बड़बड़ाती रही थी।

क्रमशः

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सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

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