यह भी नहीं रहने वाला
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यह भी नहीं रहने वाला
Image by Bundschatten from Pixabay
एक साधु देश में यात्रा के लिए पैदल निकला हुआ था। एक बार रात हो जाने पर वह एक गाँव में आनंद नामक व्यक्ति के दरवाज़े पर रुका।
आनंद ने साधु की खूब सेवा की। दूसरे दिन आनंद ने बहुत सारे उपहार देकर साधु को विदा किया।
साधु ने आनंद के लिए प्रार्थना की - भगवान करे तू दिनों दिन बढ़ता ही रहे।
साधु की बात सुनकर आनंद हँस पड़ा और बोला - “अरे, महात्मा जी! जो है यह भी नहीं रहने वाला।” साधु आनंद की ओर देखता रह गया और वहाँ से चला गया।
दो वर्ष बाद साधु फिर आनंद के घर गया और देखा कि सारा वैभव समाप्त हो गया है। पता चला कि आनंद अब बगल के गाँव में एक ज़मींदार के यहाँ नौकरी करता है। साधु आनंद से मिलने गया।
आनंद ने अभाव में भी साधु का स्वागत किया। झोंपड़ी में फटी चटाई पर बिठाया। खाने के लिए सूखी रोटी ही दे दी। दूसरे दिन जाते समय साधु की आँखों में आँसू थे। साधु कहने लगा - हे भगवान्! ये तूने क्या किया?
आनंद पुनः हँस पड़ा और बोला - महाराज! आप क्यों दुःखी हो रहे हैं? महापुरुषों ने कहा है कि भगवान् इन्सान को जिस हाल में रखे, इन्सान को उसका धन्यवाद करके खुश रहना चाहिए। समय सदा बदलता रहता है और सुनो! यह भी नहीं रहने वाला।
साधु मन ही मन सोचने लगा - मैं तो केवल भेष से साधु हूँ। सच्चा साधु तो तू ही है, आनंद।
कुछ वर्ष बाद साधु फिर यात्रा पर निकला और आनंद से मिला तो देखकर हैरान रह गया कि आनंद तो अब ज़मींदारों का ज़मींदार बन गया है। मालूम हुआ कि जिस ज़मींदार के यहाँ आनंद नौकरी करता था, वह सन्तान-विहीन था। मरते समय अपनी सारी जायदाद आनंद को दे गया।
साधु ने आनंद से कहा - अच्छा हुआ। वह ज़माना गुजर गया। भगवान् करे, अब तू ऐसा ही बना रहे।
यह सुनकर आनंद फिर हँस पड़ा और कहने लगा - महाराज! अभी भी आपकी नादानी बनी हुई है।
साधु ने पूछा - "क्या यह भी नहीं रहने वाला?"
आनंद ने उत्तर दिया - "हाँ! या तो यह चला जाएगा या फिर इसको अपना मानने वाला ही चला जाएगा। कुछ भी स्थायी रहने वाला नहीं है और अगर शाश्वत कुछ है तो वह है परमात्मा और उस परमात्मा के अंश के समान हमारी आत्मा।"
आनंद की बात को साधु ने गौर से सुना और चला गया।
साधु कई साल बाद फिर लौटता है तो देखता है कि आनंद का महल तो है किन्तु कबूतर उसमें गुटरगूं कर रहे हैं और आनंद का देहांत हो गया है। बेटियाँ अपने-अपने घर चली गयी। बूढ़ी पत्नी कोने में अकेली पड़ी है।
कह रहा है आसमां यह समां कुछ भी नहीं।
रो रही हैं शबनम, नौरंगे जहाँ कुछ भी नहीं।
जिनके महलों में हज़ारों रंग के जलते थे फानूस।
झाड़ उनकी कब्र पर, बाकी निशां कुछ भी नहीं।
साधु कहता है - अरे इन्सान! तू किस बात का अभिमान करता है? क्यों इतराता है? यहाँ कुछ भी टिकने वाला नहीं है। दुःख या सुख कुछ भी सदा नहीं रहता। तू सोचता है कि पड़ोसी मुसीबत में है और मैं मौज में हूँ, लेकिन सुन! न मौज रहेगी और न ही मुसीबत। सदा तो उसको जानने वाला ही रहेगा।
“सच्चे इन्सान वे हैं, जो हर हाल में ख़ुश रहते हैं।
मिल गया माल तो उस माल में ख़ुश रहते हैं।
और हो गये बेहाल तो उस हाल में ख़ुश रहते हैं।”
साधु कहने लगा - “धन्य है आनंद! तेरा सत्संग और धन्य हैं तुम्हारे सतगुरु! मैं तो दिखावे का साधु हूँ। असली फ़कीरी तो तेरी ज़िन्दगी में है। अब मैं तेरी तस्वीर देखना चाहता हूँ। कुछ फूल चढ़ाकर दुआ तो मांग लूँ।”
साधु दूसरे कमरे में जाता है तो देखता है कि आनंद ने अपनी तस्वीर पर लिखवा रखा है - “आख़िर में यह भी नहीं रहेगा।”
विचार करें!!!
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सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
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