धर्म का प्रभाव क्यों नहीं पड़ता

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धर्म का प्रभाव क्यों नहीं पड़ता

Image by Susanne Jutzeler, Schweiz, from Pixabay

एक दिवस एक शिष्य अपने गुरुजी के पास आकर बोला, “गुरुजी, प्रायः अनेक व्यक्ति प्रश्न करते हैं कि धर्म का प्रभाव क्यों नहीं होता? मुझे भी यह प्रश्न पिछले कुछ समय से अत्यधिक व्याकुल कर रहा है।”

गुरुजी बोले, “वत्स! जाओ, एक घड़ा मदिरा का ले आओ।”

जैसे ही शिष्य ने मदिरा का नाम सुना, वह अवाक् रह गया और सोचने लगा कि गुरुजी और मदिरा, वह अपने स्थान पर खडे होकर सोचता ही रह गया।

गुरुजी ने पुनः कहा, “वत्स, किस विचार में डूब गए हो? मेरी आज्ञा का पालन करो और जाकर एक घड़ा मदिरा का लेकर आओ।”

यह सुनते ही शिष्य तुरन्त गया और शीघ्र ही एक मदिरा से भरा घड़ा ले आया और उसे गुरुजी के समक्ष रखकर बोला, “गुरुजी, आपकी आज्ञा का पालन कर लिया।”

तब गुरुजी बोले, “अब इस घड़े की पूर्ण मदिरा का सेवन करो।”

वहां उपस्थित सभी शिष्य बहुत अचम्भित होकर गुरुजी को देख रहे थे।

गुरुजी आगे बोले, “किन्तु सेवन करते हुए एक बात का ध्यान रखना, मदिरा को मुख में डालने के पश्चात् शीघ्र उसे कुल्ला कर थूक देना और किसी भी स्थिति में उसे कण्ठ से नीचे नहीं उतारना।”

इसके पश्चात शिष्य गुरुजी की आज्ञा का पालन करते हुए, मदिरा को मुख में भरकर, कुल्ला करता, तत्पश्चात् तत्काल उसे थूक देता और इस प्रकार देखते ही देखते सारी मदिरा समाप्त हो गई।

उसके पश्चात् शिष्य गुरुजी के पास गया और बोला, “गुरुदेव! आपकी आज्ञा का पालन हो गया है और सम्पूर्ण मदिरा समाप्त हो गई है।” तब गुरुजी ने उस शिष्य से पूछा, “मदिरा का सेवन कर उन्माद (नशा) हुआ या नहीं?

शिष्य बोला, “गुरुदेव! उन्माद तो लेश मात्र भी नहीं हुआ।”

गुरुजी ने थोड़े ऊंचे स्वर में कहा, “अरे ऐसे कैसे! सम्पूर्ण एक घड़ा मदिरा के सेवन के पश्चात रत्तीभर भी उन्माद नहीं हुआ?

शिष्य बड़ी विनम्रता से बोला, “गुरुदेव उन्माद तो तभी होता, जब मदिरा कण्ठ से नीचे उतरती, कण्ठ से नीचे तो एक बूंद भी नहीं गई, इसी कारण पूर्ण मदिरा समाप्त होने पर भी उन्माद नहीं हुआ।”

तब गुरुजी अपने शिष्य को समझाते हुए कहते हैं, “वत्स, तुम्हारे प्रश्न का उत्तर भी यही है। धर्म का प्रभाव केवल उसका ज्ञान लेने मात्र से नहीं होता है। जिस प्रकार मदिरा का उन्माद तब तक नहीं हो सकता है, जब तक वह कण्ठ से नीचे नहीं जाती है, उसी प्रकार धर्म का प्रभाव भी तब तक नहीं होता है, जब तक वह आचरण में नहीं आता है। पतन सहज ही हो जाता है, उत्थान बड़ा दुष्कर एवं कष्टपूर्ण होता है। दोषयुक्त कार्य सहजता से हो जाता है; किन्तु सत्कर्म के लिए विशेष प्रयासों की आवश्यकता होती है। पुरुषार्थ की अपेक्षा होती है।”

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सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

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