दृष्टिकोण

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दृष्टिकोण

Image by Ralph from Pixabay

एक भिक्षुणी संन्यासिनी स्त्री एक रात एक गाँव में भटकती हुई पहुँची। वह रास्ता भटक गयी थी और जिस गाँव में पहुँचना चाहती थी वहां न पहुँचकर दूसरे गाँव पहुँच गयी। उसने जाकर एक घर का दरवाज़ा खटखटाया। आधी रात थी। दरवाज़ा खुला, लेकिन उस गाँव के लोग दूसरे धर्म को मानते थे और वह भिक्षुणी दूसरे धर्म की थी। उस दरवाज़े के मालिक ने दरवाज़ा बंद कर लिया और कहा - देवी! यह द्वार तुम्हारे लिये नहीं है। हम इस धर्म को नहीं मानते। तुम कहीं और खोज कर लो और उसने चलते वक्त यह भी कहा कि इस गाँव में शायद ही कोई दरवाज़ा तुम्हारे लिए खुले, क्योंकि इस गाँव के सभी लोग दूसरे धर्म को मानते हैं और हम तुम्हारे धर्म के दुश्मन हैं।

आप तो जानते ही हैं कि विभिन्न धर्म आपस में शत्रु नहीं हैं, लेकिन उन्हें मानने वाले आपस में शत्रु जैसा व्यवहार करने लगते हैं। एक गाँव का अलग धर्म है, दूसरे गाँव का अलग धर्म है। एक धर्म वाले को दूसरे धर्म वाले के यहां कोई जगह नहीं। कोई आशा नहीं, कोई प्रेम नहीं। उनके दिल के द्वार दूसरे के लिए बंद हो जाते हैं।

उस भिक्षुणी के लिए भी सभी द्वार बंद हो गये उस गाँव में। उसने दो-चार दरवाज़े खटखटाये लेकिन सभी दरवाज़े बंद हो गये। सर्दी की रात थी। अंधेरी रात थी। वह अकेली स्त्री थी। किसी ने यह नहीं सोचा कि वह इतनी रात को कहां जायेगी?

सच्चे धार्मिक लोग भी इस तरह की बातें कभी नहीं सोचते। धार्मिक लोगों ने मनुष्यता जैसी कोई बात कभी सोची ही नहीं। वे हमेशा सोचते हैं - हिन्दू हैं या मुसलमान, बौद्ध हैं या जैन। आदमी का सीधा मानवीयता का मूल्य उनकी नज़र में कभी नहीं रहा। उस स्त्री को वह गाँव छोड़ देना पड़ा। वह आधी रात में गाँव के बाहर जाकर एक पेड़ के नीचे सो गई।

लगभग दो घंटे बाद ठण्ड के कारण उसकी नींद खुली। उसने आँख खोली तो देखा कि ऊपर आसमान तारों से भरा है। उस पेड़ पर फूल खिल गये हैं। रात को खिलने वाले फूलों की सुगंध चारों तरफ़ फैल रही है। पेड़ के फूल चटख रहे हैं। चटखने की आवाज़ आ रही है और फूल खिलते चले जा रहे हैं।

वह आधी घड़ी मौन उस पेड़ के फूलों को खिलते देखती रही। आकाश के तारों को देखती रही। फिर दौड़ी गाँव की तरफ। उसने फिर जाकर उन दरवाज़ों को खटखटाया, जिन दरवाज़ों को उनके मालिकों ने बंद कर लिया था।

आधी रात फिर कौन आ गया? उन्होंने दरवाज़े खोले। वही भिक्षुणी खड़ी थी। उन्होंने कहा - हमने मना कर दिया था न! ये द्वार तुम्हारे लिये नहीं हैं। फिर दोबारा क्यों आ गई हो?

लेकिन उस स्त्री की आँखों से कृतज्ञता के आँसू बहे जा रहे थे। उसने कहा - नहीं! अब द्वार खुलवाने नहीं आयी। अब ठहरने नहीं आई। केवल धन्यवाद देने आई हूँ। अगर तुम आज मुझे अपने घर में ठहरा लेते तो रात को आकाश के तारे और फूलों का चटख कर खिल जाना मैं देखने से वंचित ही रह जाती। मैं सिर्फ धन्यवाद देने आई हूँ कि तुम्हारी बहुत कृपा थी कि तुमने द्वार बंद कर लिये और मैं खुले आकाश के नीचे सो सकी। तुम्हारी बहुत कृपा थी कि तुमने घर की दीवारों की कैद से बचा लिया और खुले आकाश के नीचे मुझे भेज दिया।

जब तुमने भेजा था तब तो मेरे मन को लगा था कि कैसे बुरे लोग हैं ये? अब मैं यह कहने आई हूँ कि कैसे भले लोग हैं इस गाँव के। मैं धन्यवाद देने आई हूँ। परमात्मा तुम पर कृपा करे।

जैसी तुमने मुझे एक अनुभव की रात दे दी, जो आनन्द मैंने आज जाना है, जो फूल मैंने आज खिलते देखे हैं, जैसे मेरे भीतर भी कोई कली चटख गई हो और खिल गई हो। जैसी आज अकेली रात में मैंने आकाश के तारे देखे हैं, जैसे मेरे भीतर ही कोई आकाश स्पष्ट हो गया हो और तारे खिल गये हों, मैं उसके लिए धन्यवाद देने आई हूँ। बहुत भले लोग हैं तुम्हारे गाँव के।

शिक्षा -

परिस्थिति कैसी है, इस पर कुछ निर्भर नहीं करता। हम परिस्थिति को कैसे लेते हैं, इस पर सब कुछ निर्भर करता है। जब हम परिस्थिति को सकारात्मक दृष्टिकोण से देखते हैं, तब तो राह पर पड़े हुए पत्थर भी सीढ़ियाँ बन जाते हैं और जब हम परिस्थितियों को गलत ढंग से लेने के आदी हो जाते हैं तो सीढ़ियाँ भी मंदिर के अवरोधक पत्थर मालूम पड़ने लगती हैं, जिनसे भगवान तक पहुँचने का रास्ता लंबा हो जाता है। पत्थर सीढ़ी बन सकते हैं, सीढियाँ पत्थर मालूम हो सकती हैं। सुअवसर भी दुर्भाग्य मालूम हो सकते हैं।

हम कैसे सोचते हैं, हमारी देखने की दृष्टि क्या है, हमारी विचारों की पकड़ क्या है, हमारा जीवन के प्रति दृष्टिकोण क्या है, हम कैसे जीवन को सोचते हैं और देखते हैं?

सदैव आशा भरी दृष्टि से जीवन को देखें। साधक अगर निराशा से जीवन को देखेगा तो प्रगति नहीं कर सकता। आशा से भरकर जीवन को देखें। अधैर्य से भरकर अपने जीवन को देखेंगे तो साधक एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकता है। धैर्य से, अनन्त धैर्य-पूर्वक जीवन को देखें। उतावलेपन में जीवन को देखेंगे, तो शीघ्रता में भागते हुए साधक ठोकर खा सकता है और फिर उसका पतन अवश्यम्भावी है। वह एक इंच भी आगे नहीं बढ़ सकता।

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सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

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