प्रभु की प्राप्ति किसे होती है?
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प्रभु की प्राप्ति किसे होती है?
एक राजा था। वह बहुत न्यायप्रिय तथा प्रजा-वत्सल एवं धार्मिक स्वभाव का था। वह नित्य अपने इष्ट देव की बड़ी श्रद्धा से पूजा-पाठ करता था और उन्हें याद करता था।
एक दिन इष्ट देव ने प्रसन्न होकर उसे दर्शन दिये तथा कहा - “राजन्! मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ। बोलो तुम्हारी क्या इच्छा है?”
प्रजा को चाहने वाला राजा बोला - “भगवन्! मेरे पास आपका दिया सब कुछ है। आपकी कृपा से राज्य में सब प्रकार की सुख-शान्ति है। फिर भी मेरी एक ही इच्छा है कि जैसे आपने मुझे दर्शन देकर धन्य किया, वैसे ही मेरी सारी प्रजा को भी कृपा कर दर्शन दीजिये।”
“यह तो सम्भव नहीं है” - ऐसा कहते हुए भगवान ने राजा को समझाया, परन्तु प्रजा को चाहने वाला राजा भगवान से जिद करने लगा।
आखिर भगवान को अपने साधक के सामने झुकना पड़ा और वे बोले - “ठीक है। कल अपनी सारी प्रजा को उस पहाड़ी के पास ले आना और मैं पहाड़ी के ऊपर से सभी को दर्शन दूँगा।”
ये सुन कर राजा अत्यन्त प्रसन्न हुआ और भगवान को धन्यवाद दिया।
अगले दिन सारे नगर में ढिंढोरा पिटवा दिया कि कल सभी पहाड़ के नीचे मेरे साथ पहुँचे। वहाँ भगवान आप सबको दर्शन देंगे।
दूसरे दिन राजा अपनी समस्त प्रजा और स्वजनों को साथ लेकर पहाड़ी की ओर चलने लगा।
चलते-चलते रास्ते में एक स्थान पर तांबे के सिक्कों का पहाड़ देखा।
प्रजा में से कुछ लोग उस ओर भागने लगे। तभी ज्ञानी राजा ने सबको सतर्क किया कि कोई उस ओर ध्यान न दे, क्योंकि तुम सब भगवान से मिलने जा रहे हो। इन तांबे के सिक्कों के पीछे अपने भाग्य को लात मत मारो।
परन्तु लोभ-लालच में वशीभूत प्रजा के कुछ लोग तो तांबे के सिक्कों वाली पहाड़ी की ओर भाग ही गए और सिक्कों की गठरी बनाकर अपने घर की ओर चलने लगे।
वे मन ही मन सोच रहे थे कि पहले इन सिक्कों को समेट लें। भगवान से तो फिर कभी मिल ही लेंगे।
राजा खिन्न मन से आगे बढ़े। कुछ दूर चलने पर चांदी के सिक्कों का चमचमाता पहाड़ दिखाई दिया।
इस बार भी बचे हुये प्रजाजनों में से कुछ लोग उस ओर भागने लगे और चांदी के सिक्कों की गठरी बनाकर अपने घर की ओर चलने लगे। उनके मन में विचार चल रहा था कि ऐसा मौका बार-बार नहीं मिलता है।
चांदी के इतने सारे सिक्के क्या पता, फिर मिलें न मिलें। भगवान तो फिर कभी मिल ही जायेंगे।
इसी प्रकार कुछ दूर और चलने पर सोने के सिक्कों का पहाड़ नज़र आया। अब तो प्रजाजनों में से बचे हुए सारे लोग तथा राजा के स्वजन भी उस ओर भागने लगे।
वे भी दूसरों की तरह सिक्कों की गठरियां लाद-लाद कर अपने-अपने घरों की ओर चल दिये।
अब केवल राजा और रानी ही शेष रह गये थे। राजा रानी से कहने लगे - “देखो! कितने लोभी हैं ये लोग? भगवान से मिलने का महत्व ही नहीं जानते हैं। भगवान के सामने सारी दुनिया की दौलत क्या चीज़ है?”
सही बात है - रानी ने राजा की बात का समर्थन किया और वे आगे बढ़ने लगे। कुछ दूर चलने पर राजा और रानी ने देखा कि सप्तरंगी आभा बिखेरता एक हीरों का पहाड़ है।
अब तो रानी से भी रहा नहीं गया। हीरों के आकर्षण से वह भी दौड़ पड़ी और हीरों की गठरी बनाने लगी। फिर भी उसका मन नहीं भरा, तो साढ़ी के पल्लू में भी बांधने लगी।
वजन के कारण रानी के वस्त्र देह से अलग हो गये, परंतु हीरों की तृष्णा अभी भी नहीं मिटी। यह देख राजा को अत्यन्त ही ग्लानि और विरक्ति हुई। बहुत दुःखद मन से राजा अकेले ही आगे बढ़ते गये।
वहाँ सचमुच भगवान खड़े उसका इन्तजार कर रहे थे। राजा को देखते ही भगवान मुस्कुराये और पूछा - “कहाँ है तुम्हारी प्रजा और तुम्हारे प्रियजन? मैं तो कब से उनसे मिलने के लिये बेकरारी से उनका इन्तजार कर रहा हूँ।”
राजा ने शर्म और आत्म-ग्लानि से अपना सिर झुका दिया।
तब भगवान ने राजा को समझाया -
“राजन्! जो लोग अपने जीवन में भौतिक, सांसारिक प्राप्ति को मुझसे अधिक मानते हैं, उन्हें कदाचित् मेरी प्राप्ति नहीं होती और वे मेरे स्नेह तथा कृपा से भी वंचित रह जाते हैं।”
सार -
जो जीव अपनी मन, बुद्धि और आत्मा से भगवान की शरण में जाते हैं और जो सर्वलौकिक मोह को छोड़ कर प्रभु को ही अपना मानते हैं, वे ही सब कर्मों से मुक्त हो कर मोक्ष प्राप्त करते हैं।
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सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
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