दो पोटली
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दो पोटली
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एक बार भगवान ने जब इंसान की रचना की तो उसे दो पोटली दी। कहा कि एक पोटली को आगे की तरफ लटकाना और दूसरी को कंधे के पीछे पीठ पर। आदमी दोनों पोटलियां लेकर चल पड़ा।
हां, भगवान ने उसे यह भी कहा था कि आगे वाली पोटली पर नज़र रखना, पीछे वाली पर नहीं।
समय बीतता गया। वह आदमी आगे वाली पोटली पर बराबर नज़र रखता। आगे वाली पोटली में उसकी कमियां थी और पीछे वाली में दुनिया की।
वह अपनी कमियां सुधारता गया और तरक्की करता गया। पीछे वाली पोटली को उसने नजरंदाज कर रखा था।
एक दिन तालाब में नहाने के पश्चात, दोनों पोटलियां अदल-बदल हो गई। आगे वाली पीछे और पीछे वाली आगे आ गई।
अब उसे दुनिया की कमियां ही कमियां नजर आने लगी। यह ठीक नहीं, वह ठीक नहीं। बच्चे ठीक नहीं, पड़ोसी बेकार है, सरकार निक्कमी है आदि-आदि। अब वह खुद के अलावा सब में कमियां ढूंढने लगा।
परिणाम यह हुआ कि और कोई तो नहीं सुधरा, पर उसका पतन होने लगा। वह चक्कर में पड़ गया कि यह क्या हुआ है? वह वापस भगवान के पास गया। भगवान ने उसे समझाया कि जब तक तेरी नज़र अपनी कमियों पर थी, तू तरक्की कर रहा था। जैसे ही तूने दूसरों में मीन-मेख निकालने शुरू कर दिए, वहीं से तेरा पतन शुरू हो गया।
हकीकत भी यही है कि हम किसी को नहीं सुधार सकते। हम अपने आपको सुधार लें, इसी में हमारा कल्याण है। हम सुधरेंगे तो जग सुधरेगा। हम यही सोचते हैं कि सबको ठीक करके ही हमें शांति प्राप्त होगी, जबकि शांति तो तब तक प्राप्त नहीं होगी, जब तक हम खुद को ठीक नहीं कर लेते।
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सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
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