सत्यवादी जग में सुखी
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सत्यवादी जग में सुखी
Image by hartono subagio from Pixabay
एक बार की बात है कि नारद, पर्वत और वसु तीनों बचपन में गुरु क्षीर कदम्ब से पढ़ा करते थे। उन तीनों के सामने गुरु जी ने ‘अजैर्यष्टव्यमिति’ का अर्थ बताते हुए ‘अज’ शब्द का अर्थ बताया था कि ‘अज’ का अर्थ धान भी होता है और बकरा भी। तुम्हें यहाँ ध्यान में रखना है कि 3 वर्ष पुराने ‘धान’ से ही हवन करना है।
एक बार नारद और पर्वत में ‘अज’ के अर्थ को लेकर बहस हो गई - ‘पर्वत! यह क्या गजब कर रहे हो? ‘अजैर्यष्टव्यमिति’ का अर्थ तुम यह कर रहे हो कि बकरों का यज्ञ में होम कराना! अरे दुष्ट! गुरु जी ने इस शब्द का अर्थ बतलाया था कि तीन वर्ष पुराने धान से होम करना क्योंकि उनमें पुनः उगने की शक्ति नहीं रहती।’
नारद की बात सुनकर गुरु-पुत्र पर्वत, जो पिता की मृत्यु के बाद स्वयं ही गुरु बन बैठा था, नारद से झगड़ने लगा और किसी भी तरह अपना पक्ष छोड़ने को तैयार नहीं हुआ। वाद-विवाद ने जब तूल पकड़ ली, तो दोनों में एक समझौता हुआ कि न्याय हेतु राजा वसु के पास जाया जाए। वे जो निर्णय देंगे, वही दोनों को मान्य होगा।
पर्वत अपनी माँ गुरुमाता के पास गया और वाद-विवाद की सब बातें बताई। वह दुविधा में पड़ गई। एक ओर पर्वत की बात को सही कहती हैं तो हिंसा की पुष्टि होती है दूसरी ओर अपने पुत्र को नारद की बात से अपमानित होने से कैसे बचाएं, यह प्रश्न उसके सामने था। जबकि वह जानती थी कि उसका पुत्र ही गलत था।
उसने खूब सोचा-विचारा और उसे याद आया कि एक बार उसने राजा वसु को अपने पति की मार से बचाया था, जब वह उसके पति अर्थात् गुरु के पास शिक्षा ग्रहण किया करता था। वसु ने उसे एक वर मांगने के लिए कहा था कि वह राजा बनने के बाद उसे पूरा करेगा और उसने उस वर को वसु के पास ही धरोहर के रूप में रखने को कह दिया था।
माँ ने सोचा कि बस! इस समय मैं उस वर को मांग लूंगी। वह राजा वसु के पास पहुंची यद्यपि वह जानती थी कि पुत्र का पक्ष गलत है, फिर भी उसने राजा वसु से वर मांग ही लिया कि आपको मेरे पुत्र के पक्ष में ही निर्णय देना होगा।
सत्यवक्ता के रूप में प्रसिद्ध राजा वसु भी विवश हो गया और जब झगड़े का निर्णय कराने के लिए नारद और पर्वत राजा वसु के पास गए तो उसने कह ही डाला कि जो पर्वत कहता है, वह सही है। गुरु जी ने ‘अज’ शब्द का अर्थ बकरा ही किया था, धान नहीं।
बस! उसके इतना झूठ बोलते ही उसका सिंहासन वसु सहित पृथ्वी में धंसने लगा। सिंहासन में स्फटिक मणि के पाए लगे हुए थे, जिससे ऐसा दिखता था कि सिंहासन अधर में है और इसका कारण था राजा वसु की सत्यवादिता। लेकिन जब वसु का सिंहासन नीचे खिसकने लगा, तो तब भी नारद जी ने कहा कि हे राजन्! फिर सोच लो। झूठ बोलकर क्यों हिंसा का तांडव नृत्य कराने पर तुले हो? तुम इसी क्षण अपना निर्णय बदल दो।
परंतु ‘विनाश काले विपरीत बुद्धिः’। राजा वसु ने पर्वत के पक्ष को ही सही ठहराया।
बस! सिंहासन खिसकते-खिसकते पूरा पृथ्वी में ही धंस गया और साथ में राजा वसु भी पाताल लोक पहुंच गया। झूठ के पाप से मरकर वसु सातवें नरक में गया। पर्वत को गधे पर चढ़ाकर नगर से बाहर निकाल दिया गया। नारद को पूरा सम्मान मिला और राज्य मिला, जिसे त्याग कर उसने दीक्षा ग्रहण की और तपस्या करके स्वर्ग गया। लेकिन मांस लोलुपी लोगों के कारण आज भी धर्म के नाम पर हवन में बकरे की बलि दी जा रही है।
तभी तो कहा है - ‘वसु झूठ सेती नरक पहुंचा, स्वर्ग में नारद गया।’
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सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
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