उपदेश
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उपदेश
एक बार एक स्वामी जी भिक्षा मांगते हुए एक घर के सामने खड़े हुए और उन्होंने आवाज लगायी - ‘भिक्षा दे दे, माते!’
घर से महिला बाहर आयी। उसने उनकी झोली में भिक्षा डाली और कहा, “महात्मा जी! कोई उपदेश दीजिए।”
स्वामी जी बोले, “आज नहीं, कल दूँगा। कल खीर बना कर देना।”
दूसरे दिन स्वामी जी ने पुनः उस घर के सामने आवाज दी - ‘भिक्षा दे दे, माते!’
उस घर की स्त्री ने उस दिन खीर बनायी, जिसमें बादाम-पिस्ते भी डाले थे। वह खीर का कटोरा लेकर बाहर आयी।
स्वामी जी ने अपना कमंडल आगे कर दिया।
वह स्त्री जब खीर डालने लगी, तो उसने देखा कि कमंडल में गोबर और कूड़ा भरा पड़ा है। उसके हाथ ठिठक गए।
वह बोली, “महाराज! यह कमंडल तो गन्दा है।”
स्वामी जी बोले, “हाँ, गन्दा तो है, किन्तु खीर इसमें डाल दो।”
स्त्री बोली, “नहीं, महाराज! तब तो खीर ख़राब हो जायेगी। दीजिये यह कमंडल, मैं इसे शुद्ध कर लाती हूँ।”
स्वामी जी बोले, ‘मतलब जब यह कमंडल साफ़ हो जायेगा, तभी खीर डालोगी न?”
स्त्री ने कहा, “जी, महाराज!”
स्वामी जी बोले, “मेरा भी यही उपदेश है। मन में जब तक चिन्ताओं का कूड़ा-कचरा और बुरे संस्कारों का गोबर भरा है, तब तक उपदेशामृत का कोई लाभ नहीं होगा। यदि उपदेशामृत पान करना है, तो प्रथम अपने मन को शुद्ध करना चाहिए, कुसंस्कारों का त्याग करना चाहिए, तभी सच्चे सुख और आनन्द की प्राप्ति होगी, क्योंकि आपकी अच्छी सोच ही आपके कार्य को निर्धारित करती है।”
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सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
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