मां....उर्फ सास

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मां....उर्फ सास

Image by Antonio López from Pixabay

बर्तन गिरने की आवाज़ से शिखा की आँख खुल गयी। घड़ी देखी तो आठ बज रहे थे। वह हड़बड़ा कर उठी।

“उफ़्फ! मम्मी जी ने कहा था कि कल सुबह जल्दी उठना है। “रसोई” की रस्म करनी है, हलवा-पूरी बनाना है और मैं हूँ कि सोती ही रह गयी। अब क्या होगा! पता नहीं, मम्मी जी, डैडी जी क्या सोचेंगे, कहीं मम्मी जी गुस्सा न हो जाएँ। हे भगवान!”

उसे रोना आ रहा था। “ससुराल” और “सास” नाम का हौवा उसे बुरी तरह डरा रहा था।

कहा था दादी ने - “ससुराल है। ज़रा संभल कर रहना। किसी को कुछ कहने का मौका न देना, नहीं तो सारी उम्र ताने सुनने पड़ेंगे। सुबह-सुबह उठ जाना, नहा-धोकर साड़ी पहनकर तैयार हो जाना, अपने सास-ससुर के पाँव छूकर उनसे आशीर्वाद लेना। कोई भी ऐसा काम न करना जिससे तुम्हें या तुम्हारे माँ-पापा को कोई उल्टा-सीधा बोले।”

शिखा के मन में एक के बाद एक दादी की बातें गूंजने लगी थी।

किसी तरह वह भागा-दौड़ी करके तैयार हुई। ऊँची-नीची साड़ी बाँध कर वह बाहर निकल ही रही थी कि आईने में अपना चेहरा देखकर वापस भागी - न बिंदी, न सिन्दूर - आदत नहीं थी तो सब लगाना भूल गयी थी। ढूँढकर बिंदी का पत्ता निकाला। फिर सिन्दूरदानी ढूँढने लगी। जब नहीं मिली तो लिपस्टिक से माथे पर हल्की सी लकीर खींचकर कमरे से बाहर आई।

जिस हड़बड़ी में शिखा कमरे से बाहर आई थी, वह उसके चेहरे से, उसकी चाल से साफ़ झलक रही थी। लगभग भागती हुई सी वह रसोई में दाखि़ल हुई और वहाँ पहुँचकर ठिठक गयी। उसे इस तरह हड़बड़ाते हुए देखकर सासू माँ ने आश्चर्य से उसकी तरफ़ देखा। फिर ऊपर से नीचे तक उसे निहारकर धीरे से मुस्कुराकर बोली, “आओ बेटा! नींद आई ठीक से या नहीं?”

अचकचाकर बोली, “जी मम्मी जी! नींद तो आई, मगर ज़रा देरी से आई, इसीलिए सुबह जल्दी आँख नहीं खुली। सॉरी....”, बोलते हुए उसकी आवाज़ से डर साफ़ झलक रहा था।

सासू माँ बोली, “कोई बात नहीं बेटा! नई जगह है। हो जाता है।”

शिखा हैरान होकर उनकी ओर देखने लगी, फिर बोली, “मगर....मम्मी जी, वो हलवा-पूरी?”

सासू माँ ने प्यार से उसकी तरफ़ देखा और पास रखी हलवे की कड़ाही उठाकर शिखा के सामने रख दी और शहद जैसे मीठे स्वर में बोलीं, “हाँ! बेटा! ये लो! इसे हाथ से छू दो!”

शिखा ने प्रश्नभरी निगाहों से उनकी ओर देखा।

उन्होंने उसकी ठोड़ी को स्नेह से पकड़ कर कहा, “बनाने को तो पूरी उम्र पड़ी है। मेरी इतनी प्यारी, गुड़िया जैसी बहू के अभी हँसने-खेलने के दिन हैं। उसे मैं अभी से रसोई का काम थोड़ी न कराऊँगी। तुम बस अपनी प्यारी-सी, मीठी मुस्कान के साथ सर्व कर देना - आज की रस्म के लिए इतना ही काफ़ी है।”

सुनकर शिखा की आँखों में आँसू भर आए।

वह अपने-आप को रोक न सकी और लपक कर उनके गले से लग गई। उसके रुंधे हुए गले से सिर्फ़ एक ही शब्द निकला - माँ।

सीख - दोस्तों, जितना हो सके ससुराल में बहुओं को डराना बंद हो जाये तो ये संसार स्वर्ग बन जाये। सास नाम का ख़ौफ़ हर लड़की के दिल में घर कर चुका है। इसे आपसी प्यार और सामंजस्य से ही दूर किया जा सकता है।

सदैव प्रसन्न रहिये! जो प्राप्त है, वही पर्याप्त है।

जिसका मन मस्त है, उसके पास समस्त है।।

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सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

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