बावर्ची !!

 बावर्ची !!

आज फिर से साहब का दिमाग उचट गया था ऑफिस में! बाहर बारिश हो रही थी, मन किया कि पास वाले ढाबे पर चलकर कुछ खाया जाए। सो ऑफिस का काम फटाफट निपटा कर पहुँच गए साहब ढाबे में।

रामू दौड़ता हुआ आया, हाथ  में पानी का गिलास मेज पर रखते हुए साहब को नमस्ते की और बोला, “क्या बात है, साहब? काफी दिनों बाद आये हैं आज आप?“

“हाँ रामू! मैं शहर से बाहर गया था।“ साहब ने जबाब दिया।

“आप बैठो साहब, मैं आपके लिए कुछ खाने को लाता हूँ।“

वह एक साधारण-सा ढाबा था, मगर पता नहीं इतने बड़े साहब को वहाँ आना बहुत ही अच्छा लगता था। साहब को कुछ भी आर्डर देने की ज़रूरत नहीं पड़ती थी, बल्कि उनका मनपसंद भोजन अपने आप ही रामू ले आता था। स्वाद भी बहुत भाता था साहब को यहां के खाने का। पता नहीं रामू को कैसे पता लग जाता था कि साहब को कब क्या अच्छा लगेगा और पैसे भी काफी कम लगते थे यहां पर।

साहब बैठे सोच ही रहे थे कि चिर-परिचित पकोड़ों की खुशबू से साहब हर्षित हो गए।

“अरे रामू! तू बड़ा जादूगर है रे! इस मौसम में इससे अच्छा और कुछ हो ही नहीं सकता है,“ साहब पकोड़े खाते हुए बोले।

“अरे साहब! पेट भर कर खाइयेगा, इसके बाद अदरक वाली चाय भी लाता हूँ,“ रामू बोला।

साहब का मूड एकदम फ्रेश हो गया था।

“देखो! आज मैं तुम्हारे ढाबे के कुक से मिलकर ही जाऊँगा। बहुत ही अच्छा खाना बनाता है वह!“ साहब ने फिर से अपनी पुरानी जिद्द दोहरा दी।

हर बार रामू टाल देता था, मगर आज साहब ने भी जिद्द पकड़ ली थी कि रसोइये से मिलकर ही रहूँगा, उसका शुक्रिया अदा करूँगा।

साहब जबरदस्ती रसोई में घुस गए। आज रामू की एक न चल पायी।

अंदर का नज़ारा साहब ने देखा कि एक बूढ़ी-सी औरत चाय बना रही थी। वह बहुत खुश थी।

“माँ,“ साहब के मुंह से निकला।

“मैंने तो आपको वृद्धाश्रम में डाल दिया था.....!“

“हाँ बेटा! मगर जो सुख मुझे यहाँ तुझे खाना खिला कर मिलता है, वह वहां नहीं है।“

आज साहब को पता लग गया कि रामू को उसकी पसंद की डिशेज कैसे पता हैं और वहां पर पैसे कम क्यों लगते हैं!

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सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

🙏🙏🙏


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